Sunday, March 14, 2010

राष्ट्र नेता

गर्वीली राष्ट्रीयता का संचारक
रवीन्द्रनाथ टैगोर : 150 वाँ जयंती वर्ष
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-मधुसूदन आनंद इस बार यदि ममता बनर्जी रेल बजट प्रस्तुत करते समय नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर के सम्मान में नई सेवा की घोषणा नहीं करतीं तो शायद हम जैसे लोगों को यह पता ही नहीं चलता कि यह उनका 150 वाँ जयंती वर्ष है। उनका जन्म 7 मई 1861 को कोलकाताClick here to see more news from this city में हुआ था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 'गीतांजलि' जैसी अनुपम कृति देकर ही संसार का ध्यान भारत की ओर आकृष्ट नहीं किया, उन्होंने "विश्व भारती" जैसी शिक्षा-संस्था भी दी, जिसने साहित्य और संस्कृति के संस्कार और सरोकार दिए।
NDटैगोर के बाद आज तक किसी भारतीय को साहित्य का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला और टैगोर को भी यह पुरस्कार 1913 में मिला था। ऐसा नहीं है कि इन करीब-करीब 100 वर्षों में भारतीय साहित्य में कोई उल्लेखनीय काम न हुआ हो या भारतीय साहित्य को नोबेल से इतर मान्यता न मिली हो। हिन्दी में ही कथा सम्राट प्रेमचंद को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल चुकी है। उनकी तुलना रूस के अमर कथाकार मेक्सिम गोर्की और चीन के महान लेखक लू शून से की जाती है। भारतीय साहित्य को अगर दूसरा नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है तो इसके पीछे पश्चिमी देशों का अज्ञान और पूर्वाग्रह है। बहरहाल रवीन्द्रनाथ टैगोर इन 100 वर्षों में भारतीयों के लिए गर्व का कारण बने रहे हैं। उनके द्वारा लिखित जन मन गण हमारा राष्ट्र गीत है, जो भले ही जार्ज पंचम की प्रशंसा में लिखा गया हो, लेकिन हम सब में राष्ट्रीयता की गर्वीली भावना का संचार करता है। टैगोर ने पचास से भी ज्यादा कहानी-संग्रहों, सौ से अधिक लघु कहानियों, बारह उपन्यासों, तीस से अधिक नाटकों, दो सौ निबंधों और कम से कम दो हजार कविताओं से बांग्ला साहित्य को समृद्ध किया है। इसके अलावा उन्होंने चित्रकला और संगीत के क्षेत्र में भी काम किया। ताज्जुब होता है कि कोई आदमी इतने क्षेत्रों में इतना सारा काम कैसे कर सकता है। गीतांजलि की अपनी कविताओं का अँगरेजी में अनुवाद उन्होंने खुद किया था। जब ब्रिटेन के लोगों ने उस अनुवाद को पढ़ा या सुना, वे टैगोर के मुरीद हो गए। तब 1 नवंबर 1912 को इंडिया सोसायटी लंदनClick here to see more news from this city ने इसका प्रकाशन कराया। टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अँगरेजी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसायटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं। बाद में मार्च 1913 में मेकमिलन एंड कंपनी लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अँगरेजी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखाः" हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना कि यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नजर आ रही है।" बाद में यीट्स ने ही अँगरेजी अनुवाद की भूमिका लिखी। उन्होंने लिखा कि कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिए मैं रेलों, बसों और रेस्तराओं में घूमा हूँ और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले।" अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं जिनमें शायद एक भी पन्ना लिखने का ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ और टैगोर की ख्याति दुनिया के कोने-कोने में फैल गई। रॉयल सोसायटी के फैलो सर थॉमस मूर ने इस कृति को नोबेल पुरस्कार देने का प्रस्ताव किया। पुरस्कार मिलने पर अखबारों ने लिखा कि 1901 में नोबेल पुरस्कार शुरू होने के बाद पहली बार किसी गैर कॉकेशियन जाति के व्यक्ति को इस पुरस्कार से नवाजा गया है। ब्रिटेन ने इस पुरस्कार को अपना पुरस्कार माना क्योंकि तब भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था। इससे पहले रुडयार्ड किपलिंग को यह पुरस्कार मिला था जिनका जन्म भी भारत में ही हुआ था। उनका मूल लेखन अँगरेजी में था जबकि गीतांजलि में टैगोर ने बांग्ला से खुद अँगरेजी अनुवाद किया था।

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